Sachchidanand Joshi Ki Lokpriya Kahaniyan by Sachchidanand Joshi
‘‘सच कहूँ डॉक्टर साहब’’, खालिद एकाएक गंभीर होकर बोला, ‘‘ऐसे खुशी से नाचते-गाते लोगों को देखता हूँ, तो बस मन में यही सवाल उठता है कि इतना प्यार से, इतनी खुशी-खुशी से आपस में मिलने-जुलनेवाले लोग एकाएक हैवान क्यों हो जाते हैं?’’
—अभी मनुष्य जिंदा है
क्या करे अवतार, कैसे रोए? दुःख मनाए या खुशी, यह उसकी समझ से बाहर था। किसे सच माने वह, अपनी प्यारी गौरी चाची के लिए बाल गोपाल की तसवीर लानेवाले शौकत को या बलवाइयों द्वारा बेरहमी से तोड़ी गई तसवीर को।
—मुआवजा
मैं सोच रहा था कि किस मिट्टी की बनी है यह लड़की। अपने अभावों को भी आभूषणों की गरिमा देकर अपने शरीर पर सजाए है। पूरे विश्वास के साथ मेरे सामने खड़ी है भविष्य की चुनौतियों का सामना करने।
—नंगी टहनियों का दर्द
‘‘जुगनू सी ही सही, पर मुझमें चमक है, इस अहसास को मैं बरकरार रखना चाहता हूँ। इसलिए मुंबई वापस जा रहा हूँ। थक-हारकर यदि फिर लौटा तो आशा है कि सुबह का भूला समझकर माफ करेंगे।’’
—पल पल के सरताज
‘‘चुप कर!’’ चाईजी झल्लाईं, ‘‘दंगाइयों का कोई मजहब, कोई ईमान होता है क्या? वो तो एक ही धरम जानते हैं—बदला, बरबादी, लूट और कत्ल। हमने कब किसी का क्या बिगाड़ा था, फिर हर बार मेरा ही घर क्यों उजड़ता है!’’
—फिर एक बार
उस दिन शायद पहली बार मैंने अपने पिताजी से पूछा था, ‘‘बाबा, ये हिंदू क्या होता है?’’ बाबा हँस दिए बस। दूसरे दिन यही बात मैंने जुबेर को बताई थी, तो उसने कहा था, ‘‘तू जानता है, मेरे अब्बा मुसलमान हैं और कहते हैं, मैं भी मुसलमान हूँ।’’
—सांता क्लॉज, हमें माफ कर दो
| Publication Language |
Hindi |
|---|---|
| Publication Type |
eBooks |
| Publication License Type |
Premium |
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